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। तयोः हन्ता तु विष्णुरेव | कैटभभञ्जिनीति सप्तम्यन्तम् । विश्वम्भरः

कैटभजिदित्यमराद् विष्णुः श्रीकृष्णः तस्मिन् रासकारिणि रासरते।

कैटभभञ्जिनीति सम्बोधनं सम्बोधनमध्यगतत्वाद् यद्यप्युचितं तथापि

पुनरुक्तिमात्रं स्यादित्युपेक्षितम् । जय जयेति। ॥३॥
 
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हे जगदम्बा ! ओ मेरी माँ ! कदम्बवन में निवास करना तुम्हें

बहुत प्रिय लगता है । तुम हास्य विलास में प्रीति रखती हो । तुम

ने पर्वतों के शिरोमंणि हिमालय के उत्तुंग शिखर को अपना निवास

स्थान बनाया । तुम्हारा स्वरुप मन वाणी आदि सभी मधु के समान

मधुर मनोहर है। मधु और कैटभ को तुम ने प्रथम ही हताहत किया।

कैटभासुर के हन्ता विष्णु (श्रीकृष्ण) की रासलीला में तुम ने ही

रुचि के साथ पृष्ट भूमिका निभायी । हे महिषासुर मर्दिनी, रमणीय

केशपाशधारिणी शैलपुत्री तुम्हारी जय हो जय हो ॥३॥
 
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Hail, Oh Mother of the World (and) of me (in

particular) dweller in the forest of Kadamba

trees which are dear, delighted in the roar of

laughter, dwelling in the interior of one's own

house in the peak of lofty Himalaya -- the

crest-jewel of mountains, sweet like honey,

hater of (the demons) Madhu and Kaitabha,
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