This page has been fully proofread twice.

<page>
<p lang="hi">
करनी चाहिए । केवल कठिन व्रत से शरीर को सुखाने से कोई फ़ायदा

नहीं। देखिये तपस्या से ही कुम्भकर्ण निद्रा में बेहोश पड़ा रहने

लगा ॥ ६१ ॥
 
</p>
<verse lang="sa">
स्थिरताशां न बध्नीयाद् भुवि भावेषु भाविषु ।

रामो रघुः शिबिः पाण्डुः क्व गतास्ते नराधिपाः ॥ ६२ ॥
 
</verse>
<p lang="hi">
इस संसार में वर्तमान और भविष्य की स्थिरता की आशा न

रखनी चाहिए । देखिये, राम, रघु, शिव, पाण्डु आदि चक्रवर्ती राजा

कहाँ चले गये ॥ ६२ ॥
 
</p>
<verse lang="sa">
विडम्बयेन्न वृद्धानां वाक्यकर्मवपुःक्रियाः ।

श्रीसुतः प्राप वैरूप्यं विडम्बिततनुर्मुनेः ॥ ६३ ॥
 
</verse>
<p lang="hi">
अपने पूर्वजों के वचन, कर्म, शरीर और क्रियाओं की निन्दा न

करनी चाहिए। अष्टावक्र मुनि के शरीर की निन्दा करने से श्रीसुत ने

कुरूपता पायी ॥ ६३ ॥
 
</p>
<verse lang="sa">
नोपदेशेऽप्यभव्यानां मिथ्या कुर्यात् प्रवादिताम् ।

शुक्रषाड्गुण्यगुप्तापि प्रक्षीणा दैत्यसंततिः ॥ ६४ ॥
 
</verse>
<p lang="hi">
दुष्टों को शिक्षा देकर अपनी वाणी को व्यर्थ न करना चाहिए।

देखिए, शुक्राचार्यजी की छः गुणों से युक्त नीति से सुरक्षित रहते

हुए भी दानव अन्त में नष्ट हो गये ॥ ६४ ॥
 
</p>
<verse lang="sa">
न तीव्रदीर्घवैराणां मन्युं मनसि रोपयेत् ।

कोपेनापातयन्नन्दं चाणक्यः सप्तभिर्दिनैः ॥ ६५ ॥
 
</verse>
<p lang="hi">
जो क्रोधी, तुनुक मिज़ाज़ी हों और स्थायीरूप से शत्रुता के भाव

रखने वाले हों, उन्हें नाराज़ न करना चाहिए। चाणक्य ने ऐसे ही

क्रोध के कारण सात दिन के अन्दर नन्दवंश को नष्ट कर दिया ॥ ६५ ॥</p>
</page>