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स्वामी को प्रिय लगने वाली ऐसी चुगलखोरी न करनी चाहिए,

जिसमें दूसरों को क्लेश हो । चुगलखोरी करने से ही सूर्य और

चन्द्रमा को राहु ग्रस लिया करता है ॥ २९ ॥
 
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कुर्यान्नीचजनाभ्यस्तां न याच्ञां मानहारिणीम् ।

बलियाच्ञापरः प्राप लाघवं पुरुषोत्तमः ॥ ३० ॥
 
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अधम व्यक्तियों द्वारा सदैव की जाने वाली तथा सम्मान को

मिटा देने वाली याचना न करनी चाहिए । बलि से याचना करने के

कारण ही भगवान् विष्णु को विराट् से वामन रूप धारण करना

पड़ा ॥ ३० ॥
 
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न बन्धुसंबन्धिजनं दूषयेन्नापि वर्जयेत् ।

दक्षयज्ञक्षयायाभूत् त्रिनेत्रस्य विमानना ॥ ३१ ॥
 
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भाई-बन्धुओं, नातेदारों-रिश्तेदारों का न तो अपमान करना

चाहिए, न उन्हें रोकना चाहिए । अपने दामाद शिव जी का अपमान

करने से ही दक्ष के यज्ञ का विध्वंस हुआ ॥ ३१ ॥
 
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न विवादमदान्धः स्यान्न परेषाममर्षणः ।

वाक्पारुष्याच्छिरश्छिन्नं शिशुपालस्य शौरिणा ॥ ३२ ॥
 
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विवाद में पड़ कर न तो मदान्ध होना चाहिए और न दूसरों पर

असहनशीलता प्रकट करनी चाहिए। वचनों की कठोरता के कारण

ही भगवान् कृष्ण ने शिशुपाल का शिर काट लिया था ॥ ३२ ॥
 
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गुणस्तवेन कुर्वीत महतां मानवर्धनम् ।

हनूमानभवत् स्तुत्या रामकार्यभरक्षमः ॥ ३३ ॥
 
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गुणों की प्रशंसा करके दूसरों का सम्मान बढ़ाना चाहिए ।

प्रशंसा से ही हनुमान् जी श्रीराम का कार्य करने में समर्थ हुए ॥ ३३ ॥
 
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