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नहीं करना चाहिए। माता के शाप से ही सर्प-यज्ञ में नागों का नाश हो गया ॥ १६ ॥
 
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जराग्रहणतुष्टेन निजयौवनदः सुतः ।

कृतः कनीयान् प्रणतश्चक्रवर्ती ययातिना ॥ १७ ॥
 
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पिता को अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा खुद ले लेने वाले

अपने सबसे छोटे विनम्र पुत्र पुरु को पिता ययाति ने प्रसन्न होकर

चक्रवर्ती सम्राट् बनाया ॥ १७ ॥
 
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दानं सत्त्वमितं दद्यान्न पश्चात्तापदूषितम् ।

बलिनात्मार्पितो बन्धे दानशेषस्य शुद्धये ॥ १८ ॥
 
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सात्त्विक भावना रखकर ही दान देना चाहिए । पश्चात्ताप से

दूषित दान कभी न देना चाहिए । दान के शेष अंश की शुद्धि के

लिए ही बलि ने अपने आपको बन्धन में डाल दिया था ॥ १८ ॥
 
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त्यागे सत्त्वनिधिः कुर्यान्न प्रत्युपकृतिस्पृहाम् ।

कर्णः कुण्डलदानेऽभूत् कलुषः शक्तियाच्ञया ॥ १९ ॥
 
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सत्त्वगुण से पूर्ण व्यक्ति को चाहिए कि वह त्याग (दान) के

बदले कुछ पाने की इच्छा न करे । कर्ण ने इन्द्र को अपने कुण्डलों

का दान दिया परन्तु उसने शक्ति की याचना की इसलिए कर्ण में

मलिनता आ गयी ॥ १९ ॥
 
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ब्राह्मणान्नावमन्येत ब्रह्मशापो हि दुःसहः ।

तक्षकाग्नौ ब्रह्मशापात् परीक्षिदगमत् क्षयम् ॥ २० ॥
 
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ब्राह्मणों का कभी अपमान न करना चाहिए, क्योंकि (अपमानित)

ब्राह्मणों का शाप ही असह्य दुःखकारक होता है। ब्राह्मण के शाप

से ही राजा परीक्षित को तक्षक नाग ने काट लिया और वह ब्राह्मण

की शापाग्नि में भस्म हो गया ॥ २० ॥
 
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